Friday, September 12, 2014

पुखताल गोम्पा : एक छुपी हुई , रहस्यात्मक दुनिया (अंतिम भाग –तीन ) Phukhtal Gompa


“मैंने अब प्रकाश जी और नीरज का इंतजार करने का फैसला किया और चमकती तेज धूप में मुंह पर कपड़ा डाल के गेस्ट हाउस के बिना घास वाले लॉन में पसर गया I थक कर चूर था, पर मन में गोम्पा तक पहुँचने का सुकून भी ............. 

अब आगे:-

मैं ‘गेस्ट हाउस’ के लॉन में पड़ा हुआ था और मेरा मन अतीत की ओर जा रहा था । मैं सोच रहा था कि, ‘कहाँ से कहाँ आ गया मैं ?’ 
कैसा है ये जीवन ? जो चीज किसी खास वक्त में बहुत महत्वपूर्ण होती है, वो एक समय बाद बेमानी-सी हो जाती हैं । 

जीवन में अतीत के पन्नो को पलटते हैं तो, किसी पन्ने के बीच रखे फूल की खुशबू-सी आती है। उस वक्त के सुख हो या दुःख; बस अच्छे लगते हैं ।
कुछ अच्छी यादों को मन बार–बार याद करना चाहता है और ऐसा लगता है, अभी कल की ही तो बात है । 

.......और मेरी ये यात्रा ऐसी ही यादों की ‘जंजीर’ में एक और कड़ी है । ऐसी जगह कोई ‘पर्यटक’ नहीं जाता है। मैं भाई नीरज का शुक्रगुजार हूँ ।
पुखताल या फुगताल गोम्पा की जीपीएस से ऊंचाई तो नीरज ने नापी और नोट की थी, फिर भी लगभग 14000 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित ये गोम्पा  ‘जांसकर वैली’ का प्रमुख आकर्षण है । श्रीनगर से दो दिन कार से और दो दिन पैदल चलने के बाद हम यहाँ पहुंचे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी और ग्रह पर आ गए हैं । 
 
ये गोम्पा  ‘जांसकर वैली’ का प्रमुख आकर्षण है
विदेशी पर्यटक खिंचे चले आते हैं यहाँ । मुझे लेटे हुए 15-20 मिनट से ज्यादा हो चुके थे। मैंने उठ कर मुंह हाथ धोये और ‘गेस्ट हाउस’ के उस ओर चला गया जहाँ छाया थी । थोड़ी देर में विदेशी ‘ट्रेकर्स ‘ का एक ग्रुप आ गया । नीरज और प्रकाश जी अभी भी नहीं आये थे। विदेशियों के साथ आये ‘स्थानीय गाइड’ से पता चला कि, सारे ट्रेकर्स फ़्रांस के थे। उन विदेशियों ने अपना नाश्ता किया और ‘गोम्पा’ की ओर चल पड़े थे और मैं सोच रहा था की नीरज और प्रकाश जी के साथ ही चलेंगे । मैंने वहाँ से गोम्पा की अलग-अलग ‘एंगल’ से फोटो लिए। काफी देर के बाद नीरज आया और उसके थोड़ी देर बाद प्रकाश जी । प्रकाश जी को आया देख मेरे मन में सुकून आया । नीरज तो घुमक्कड़ है और वो मैनेज कर लेता है , तो मुझे उसकी चिंता नहीं थी।   
 
'गोम्पा' और 'माने' विदेशी के चश्में में दिखाई दे रहे है
नीरज के आने से कुछ देर पहले ही गेस्ट हाउस, जो अब तक बंद था, खुल गया और उसमें खाने से लेकर चाय नाश्ते की व्यवस्था थी । सबने अपने–अपने मनपसंद ड्रिंक्स और बिस्कुट लिए ।

एक फ्रांसीसी अपनी बीवी और बेटी के साथ आया और वो भी हमारे साथ चाय-नाश्ता करने लग गए। जब हम गोम्पा की ओर जाने लगे तो 
प्रकाश जी बोले,”मैं गोम्पा नहीं जाऊँगा ।“

मैंने पूछा, ‘क्यों ?’

वो बोले, ‘बहुत देखे हैं ऐसे गोम्पा ।‘ 

हम उन्हें छोड़ के बाहर निकलने वाले ही थे कि, मैंने महसूस किया वो फ्रांसीसी लड़की भी नहीं जा रही है गोम्पा, जबकि उसके माता-पिता जा चुके थे। मैंने आखिर उससे पूछ ही लिया । तो उसने अंग्रेजी में जवाब दिया, उसका मतलब ये ही था कि, वो यहाँ पहले भी आ चुकी है।  

मैं और नीरज प्रकाश जी और उस फ्रांसीसी लड़की को छोड़ के ‘गोम्पा’ की ओर चल दिए ।  अब हम दबा के फोटो खींच रहे थे । हर दस-बीस कदम के बाद नजदीक आते गोम्पा की फोटो खींची जा रही थी ।

नजदीक आते गोम्पा की फोटो खींची जा रही थी

तभी रास्ते में एक विदेशी को मैंने कचरा उठाते देखा और मेरा कैमरा उसके फोटो लेने लगा । वो जब नजदीक आया तो उसने अपना चेहरा ढकने की कोशिश की , तब तक तो मैंने अपने काम लायक फोटो ले लिए  थे। नीरज मुझ से पीछे चल रहा था। विदेशी से मैंने उसका नाम और देश के बारे में पूछा । उसने नाम बताया, वो तो मुझे याद नहीं रहा, लेकिन उसका देश जर्मनी था। मैंने उसकी प्रसंशा की और धन्यवाद दिया। 
 
विदेशी को मैंने कचरा उठाते देखा
लेकिन मैं यहाँ सोचने पर मजबूर हो गया , की जिस विदेशी का इस देश से कोई लेना देना नहीं है , वो यहाँ कचरा उठा  रहे है और अपने देश वाले ??? उठा नहीं सकते तो कम से कम फैलाओ तो नहीं । शर्मिंदगी का अहसास गहरा होता जा रहा था और मन बोझिल । 

अब नीरज भी मेरे नजदीक आता जा रहा था । और हम गोम्पा के बहुत नजदीक आ गए थे । बौद्ध भिक्षु दिखाई देने लगे थे । 
 
बौद्ध भिक्षु दिखाई देने लगे थे
जैसे ही गोम्पा के मधुमक्खी के छत्तेनुमा घरों की सीमा में हमने प्रवेश किया, बड़ा विचित्र सा अनुभव था वो। सीढियां चढते हुए ऊपर ‘गुफा’ के फोटो लेते हुए हम ऊपर की तरफ बढ़ने लगे । पत्थरों पर लकड़ियाँ और लट्ठे रख कर बौद्धों के रहने के घर बनाये गए थे।
   
पुखताल या फुगताल गोम्पा Gangsem Sherap Sampo ने बारहवीं सदी में स्थापित किया था और अभी लगभग सत्तर से सौ बौद्ध भिक्षु यहाँ रहते हैंLungnak (Lingti-Tsarap)  नदी के किनारे बसा हुआ है( ये जानकारी विकिपीडिया से ली गई है )
                               
Lungnak (Lingti-Tsarap)  नदी के किनारे बसा हुआ है
 एक  छोटा-मोटा शहर-सा है ये। यहाँ एक बड़ी अच्छी बात है कि आप किधर भी जाकर फोटो ले सकते हैं , सिवाय मुख्य मंदिर के।
अँधेरी और रहस्यमयी सीढ़ियों से होते हुए हम (मैं और नीरज ) ऊपर बढे जा रहे थे। हमारी उत्सुकता बढती जा रही थी । 

अँधेरी और रहस्यमयी सीढ़ियों से होते हुए

सीढियां चढ़ कर मैं तेजी से गुफा के लगभग अन्दर आ गया । एक बौद्ध भिक्षु  ‘माने’ के चारो तरफ परिक्रमा कर रहा थे । फ्रांसीसी ट्रेकर्स का ग्रुप उनके गाइड सहित मौजूद था । बौद्ध ‘माने’  के अलावा गुफा में अन्दर छोटे-छोटे कमरे बने हुए थे, जो कि बंद थे।
 
गुफा में अन्दर छोटे-छोटे कमरे बने हुए थे
 मैंने फ्रांसीसी ट्रेकर्स के गाइड को कहते सुना था कि, 'यहाँ गुप्त योग क्रियाएं होती हैं', तो मेरे कान खड़े हो गए । मुझे एक (शायद डिस्कवरी या ट्रेवलर्स) चैनल पर दिखाए गए बौद्ध भिक्षु की वो योग क्रिया याद आ गई , जिसमें वो अपने चारों तरफ जलते दीपकों के बीच जाते हैं और ध्यान मुद्रा में हवा में उठ जाते हैं।    

मैंने ऊपर जाकर देखने की कोशिश की, लेकिन वो कमरे बंद थे। कमरे, जो गुफा में ऊपर की तरफ थे, उनके  बंद दरवाजे उनकी रहस्यात्मकता को और बढा रहे थे। अब हमने ‘माने’ की परिक्रमा करते हुए उस बौद्ध भिक्षु से नीचे के कमरों के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि, ‘इसमें प्राचीन ‘जल’ है ।‘

हमने पुछा , ‘ हम देख सकते हैं ?’
भिक्षु बोले , ‘विदेशी महिलाओं के जाने के  बाद ।‘
दरअसल उसमें महिलाओं का प्रवेश वर्जित था ।

वो विदेशी जल्दी से जा नहीं रहे थे और हमारी उत्सुकता चरम पर थी ।
आखिर विदेशी महिलाएं चली गई तो, हमें जाने की अनुमति मिल गई ।
 एक पुराने  से दरवाजे को धकेल कर मैं और नीरज उस गुफा के अन्दर बने जीर्ण से कमरे में पहुंचे। वहां एक पानी का स्रोत था । जाहिर है कि,वो बहुत पुराना होगा। वहीं एक चांदी की चम्मच और एक चांदी का पात्र रखे हुए थे। उस पात्र में पवित्र जल भरा हुआ था। नीरज बड़ी गहनता  से छानबीन कर रहा था और मैं फोटो ले रहा था। 
 
वहीं एक चांदी की चम्मच और एक चांदी का पात्र रखे हुए थे
जैसे ही हमने जल को लेना चाहा, वो बौद्ध भिक्षु अन्दर आ गए। हमने उनसे जल माँगा तो उन्होंने एक प्लास्टिक के कैन में भरे जल में से थोडा-थोडा हमें दिया और हमने उसका आचमन कर लिया। एक संतोष-सा हुआ कि, पता नहीं ये ‘जलधार’ यहाँ कितने वर्षों से बह रही होगी, उसका आचमन तो किया । 

हम वहां से निकल के बाहर आ गए । मैं इधर –उधर की फोटो ले ही रहा था कि नीरज मुझे बुलाने आ गया । बोला, उधर चल । और हम उनके मुख्य मंदिर में, जो अभी खोला ही गया था, प्रवेश कर गए । उसमें एक बच्चे जैसे बौद्ध भिक्षु ने फोटो खींचने के लिए मना कर दिया ।
 
बच्चे जैसे बौद्ध भिक्षु ने फोटो खींचने के लिए मना कर दिया
 उस मुख्य मंदिर में ‘दलाई लामा जी’ की बड़ी सी फोटो लगी हुई थी । दीवारों पर प्राचीन बौद्ध चित्र थे, जो दुर्लभ थे। ‘दलाई लामा जी’ की फोटो के सामने दो पंक्तियों में आसन बिछे थे, जो कि बौद्ध भिक्षुओं के पूजा-पाठ के लिए थे । 
 
मुख्य मंदिर
बौद्ध मंदिर और गोम्पाओं के अन्दर बड़ी विचित्र सी अनुभूति होती है । लगता है , जैसे किसी और दुनिया में आ गए । मैं दूसरे कमरों में भी घूमने लग गया ।  कहीं कोई बौद्ध भिक्षु माला फेर रहे थे , तो कहीं कोई चुपचाप बैठा था ।

विदेशी बड़े उत्साहित होकर भिक्षुओं के साथ फोटो खिंचवा रहे थे । हम भी जी भर के गोम्पा को देख लेना चाहते थे ।  

धीरे-धीरे हमने वापसी शुरू कर दी । फोटो लेते हुए ही वापसी भी हो रही थी ।   

14 अगस्त का दिन था वो। मुझे वहां से लगभग एक किलोमीटर नीचे बौद्ध स्कूल की छत पर एक पत्थरों की आकृति सी दिखाई दी ।  मैंने उसको गौर से देखा तो, वो भारत का नक्शा था। मैं स्तब्ध था। कितनी मेहनत से देश के इस दूर-दराज इलाके में जो कि, देश से लगभग कटा हुआ और छुपा हुआ है, वहां स्वतंत्रता दिवस मनाने की इतनी तैयारी की जा रही थी !! 
 
स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारी
धीरे-धीरे हम वापस ‘गेस्ट हाउस’ पहुँच गए, वहां प्रकाश जी उंघते से मिले । थोडा बहुत और खा-पीकर हम ‘पुरने’ की ओर वापसी के लिए चल दिए ।  आज रात हमें पुरने रुकना था ।

 पुरने के लिए पुल पार कर दूसरी तरफ के रास्ते से जाना था । 

मन में एक राहत थी कि, अब उस ‘खतरनाक वाले रास्ते’ से नहीं जाना था । 
 
सामने उस ‘खतरनाक वाले रास्ते’ से थे
अब हमारी आगे की योजना थी कि, पुरने से सुबह ‘दारचा ट्रेक’ की शुरुआत की जायेगी और मुझे इस ट्रेक का मुख्य आकर्षण ‘शिंगो-ला’ पास लग रहा था । प्रकाश जी अनुमान लगा रहे थे कि, मुझे हर हालत में 20 अगस्त को दिल्ली पहुंचना है ।  

 दिल्ली से उनकी फ्लाईट रायपुर (छत्तीसगढ़) के लिए थी । लगभग 95 किलोमीटर का ट्रेक चार दिन में पूरा करना था , जो कि 15 किलो के बैग के साथ नामुमकिन लग रहा था । 

प्रकाश जी बोले, ‘अगर मेरी फ्लाईट छूट गई, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।‘
मैंने पूछा,  ‘अगर अपना सामान घोड़े (खच्चर) पर लाद दें तो चल सकते हैं?’
वो फिर भी थोड़े अनिश्चय की स्थिति में थे ।
'पुरने' की सीमा में प्रवेश करते ही 'याक'  के दर्शन हुए

शाम को हम जब ‘पुरने’ पहुंचे तो ‘वही’ खच्चर वाला मिल गया । 

अब ‘चा’ में जो खच्चर वाला तय किया, उसको कैंसिल करना पड़ा । जैसे ही ‘चा’ वाला खच्चर कैंसिल हुआ; पहले वाले ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया । अब जिस खच्चर के वो छः सौ माँगा रहा था, उसके पंद्रह सौ मांगने लगा था । उससे जम के बहस हुई ।  अब हमें लग गया कि, हमारी आगे की यात्रा ‘खटाई’ में है । क्योंकि मैं (सर्वाइकल की बीमारी के कारण ) और प्रकाश जी बिना खच्चर के आगे नहीं जा सकते थे ।  
अब मैं और प्रकाश जी ‘दारचा’ ट्रेक कैंसिल करने वाले थे और ‘नीरज’ ये ट्रेक पूरा करना चाहता था । हमने नीरज को अपना निर्णय बता दिया , कि हम सुबह पदुम के लिए वापसी करेंगे ।  नीरज ने भी सहमति दे दी ।    
हमने एक खाली जगह में विदेशियों के टेंट के पास ही अपने टेंट लगा लिए।  
खाना खाने ‘तेनजिंग’ नाम के लडके के घर जाना था । रात को तेनजिंग के घर पहुंचे तो, वही फ्रांसीसी (जो गेस्ट हाउस में मिला था) अपनी पत्नी और बेटी के साथ वहां बैठा मिला। वो हमें देखा कर बड़ा खुश हुए । मैंने उनकी एक फोटो ली और उन्होंने हमारी भी । 
 
फ्रांसीसी परिवार
हमने भी ‘मोमोज’ आर्डर कर दिए थे । मेरा मन खाना या कुछ भी खाने का नहीं था ।  उन फ़्रांससियों ने हमें अपने मोमोज खाने के लिए दिए , मैंने बेमन से एक दो  लिए । काफी देर तक बातचीत होती रही और आगे की योजना बनती रही। हमें तब पता चला कि , फ्रांसीसी की लड़की आर्किटेक्चर थी और ‘पदुम’ में किसी NGO के लिए काम कर रही थी । 

अब हमारा प्लान पदुम से कारगिल होते हुए लेह और मनाली का था । मन कर रहा था कि , कब यहाँ से निकलें । नीरज अपने तय कार्यक्रम के साथ आगे (दारचा) के लिए प्रस्थान करने की तैयारी कर रहा था ।
 
पुरने में रात्रि विश्राम के समय लिया गया फोटो
मैं और प्रकाश जी एक टेंट में और नीरज अपने टेंट में सो गए । सुबह आराम से उठे और नित्य क्रिया से निवृत हुए ।  नहाना यहाँ भी नहीं हो पाया ।  नाश्ता ‘तेनजिंग’ की दुकान पर किया और नीरज ‘दारचा’ की ओर तथा मैं और प्रकाश जी वापस पदुम के लिए चल दिए ...........!
                         
मधुमक्खी  छत्ते जैसा गोम्पा
गोम्पा के सामने का दृश्य

सीढ़ियां चढ़ते हुए

नीरज जाट
एक फल ऐसा भी , जिसके आँखे हैं

लाल निशान 'फ़्रांसिसी' को जाते हुए बता रहा है

वो सामने पगडण्डी दिखाई दे रही है, वही रास्ता है

संगम

इसमें देखें एक आदमी जाता हुआ दिखाई दे रहा है, वही प्रकाश जी हैं !

हमारा जीवन भी रेत पर लिखे नाम की तरह है , कोई लहर आई और हमारा वजूद ख़त्म 

ऊपर जो पगडण्डी दिख रही है , उसी पर जाना है

एक मोड़ पर

 पहला और दूसरा भाग यहाँ क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं :-
 पुखताल गोम्पा : एक छुपी हुई , रहस्यात्मक दुनिया (भाग –एक) Phukhtal Gompa

पुखताल गोम्पा : एक छुपी हुई , रहस्यात्मक दुनिया (भाग –दो ) Phukhtal Gompa








Saturday, September 06, 2014

पुखताल गोम्पा : एक छुपी हुई , रहस्यात्मक दुनिया (भाग –दो ) Pukhtal Gompa


पहले भाग में पढ़ा कि :-
पदुम से कुछ दूर चलने के बाद खतरनाक रास्ता शुरू हो गया और मैं नींद के आगोश में समाता चला गया .............

इस लेख में नीरज और प्रकाश जी का उल्लेख बार-बार आएगा , अतः इनका परिचय देना आवश्यक है !
पात्र परिचय -
नीरज जाट - ये दिल्ली मेट्रो में 'जे.ई.' हैं और प्रसिद्द  ब्लॉग 'मुसाफिर हूँ यारों ' के लेखक हैं!
प्रकाश यादव - ये NSPL के आईटी हैड हैं ! बहुत अच्छे इंसान हैं!!
अब आगे .... 
दरअसल ‘पुखताल गोम्पा’ हमारी घूमने की लिस्ट में था ही नहीं इसकी योजना कैसे बनी ये आगे बताऊंगा I
 
अनमु पहुँचने से कुछ देर पहले मेरी आँख खुली I धूल का गुबार सा उड़ता दिखाई दे रहा थाI धूप में तेजी थी, भले ही वातावरण ठंडा थाI मन बैचेन सा हो गया
 
धूल से अटे हुए 15-15 किलो के बैग जब गाड़ी से उतार रहा था, तो मन में विचार आया,   'यार कहाँ फंस गया ?'

दरअसल ये ट्रेक ‘पदुम –दारचा ‘ ट्रेक कहलाता है अबकी बार मैं एक ‘ट्रेकर’ की हैसियत से नहीं, बल्कि फोटोग्राफी के हिसाब से गया था  और वहां मुझे मेरी उम्मीद से उलट पूरा माहौल मिला I हमने जोश में माहौल और परिस्थितियों को समझे बिना जरूरत से ज्यादा वजन ले लिया था
 
खैर बुझे मन से अपना बैग लाद कर चार–पांच घरों के गाँव ‘अनमु’ में उतरे और सडक के किनारे बने छोटे से तम्बुनुमा ढाबे में जाकर बैठ गएI मन में विचार चल रहा था कि , 90-95 किलोमीटर की दूरी पैदल तय करनी पड़ेगी I साँस लेने में दिक्कत महसूस हो रही थी और ऊपर से 15 किलो का बैग लाद कर खतरनाक रास्ते पर चलना था I अंदर से दिल बैठा जा रहा था
15 किलो का बैग लाद कर इस खतरनाक रास्ते पर चलना था


इधर ‘नीरज’ नाम के प्राणी को भूख लगी हुई थी और वो ढाबे की मालकिन से खाने की पूछ रहा था , उधर मेरी भूख मर चुकी थी ढाबे की मालकिन ने चावल और मटर की सब्जी एक आदमी के खाने लायक होने की बात कही नीरज को उम्मीद जगी ही थी कि यहाँ भी वो विदेशी जोड़ा, उसके खाने पर ‘डाका’ डाल चुका था दरअसल ढाबे की मालकिन को विदेशियों से ज्यादा पैसे मिलते हैं,इसलिए उसने खाना उन विदेशियों को दे दिया और थोड़ी बहुत मटर की सब्जी बची थी, वो गिर गई नीरज का मूड ख़राब हो चुका था   

वहीं सीमा सडक संगठन के इंजिनियर साहब बैठे हुए थे उन्होंने पुछा , “ कहाँ से आये हो ?“
मैंने राउंड फिगर में दिल्ली बोल दिया I बात आगे बढ़ी तो वो नीरज के ‘पडोसी’ (गाँव या शहर ) के निकले और दोनों के ‘जाट’ की पुष्टि होते ही हाथ मिले I इंजिनियर साहब ने अपने यहाँ खाने का निमंत्रण दे दिया और नीरज ने सहर्ष स्वीकार किया     
  
चाय-वाय पीने के बाद हम BRO के ‘हट’ की ओर चल  दिए I इंजिनियर साब राजकुमार जी ने काफी अच्छी खातिरदारी की   
 
कुर्सी पर बैठे इंजिनियर साहब राजकुमार जी
 ‘अनमु’ से ट्रेक शुरू करते हुए लगभग दो बज चुके थे हवा में ठंडक थी पर धुप तेज और चमकीली थी जैसे ही पन्द्रह किलो का बैग पीठ पर डाला तो एक कंपकंपी सी आई मन में विचार आया कि , ‘बेटा और ट्रेक कर I’ 

 प्रकाश जी का यह पहला ट्रेक था और वे सीधे 4000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर ट्रेक कर रहे थे उनके बैग का वजन भी उतना ही था, जितना मेरा था मुझे उनको ले कर फिकर होने लगी थी I वो खच्चर किराये से करने की बोल रहे थे और मेरे मन में था कि इतना  वजन लाद के एक बार चल तो लें , खच्चर आगे कर लेंगे इसी उधेड़बुन में नीरज से एक ‘झड़प’ भी हो गई I आखिर हम अपना–अपना वजन ले कर चल पड़े कुछ मीटर चलने पर ही साँस फूलने लगी थी, दिमाग ऑक्सिजन के बिना सही निर्णय नहीं ले पा रहा था हालात बेहद मुश्किल थे मेरे और नीरज के बीच किसी बात को लेकर एक 'झडप' और हो गई और मैं वापसी के लिए मुड चुका था
 
 प्रकाश जी बोले, ‘यार तुम दोनों के चक्कर में मैं पिसुंगा I” मैंने भी सोचा ये बेचारे इतनी दूर आये हैं , तो इनक ट्यूर क्यों ख़राब करूँ I  हम चलते रहे , थोड़ी-थोड़ी देर में साँस फूल रही थी I नीरज सबसे ठीक चल रहा था I सीमा सडक संगठन द्वारा बनी हुई कच्ची सी सडक पीछे छूट चुकी थी I अब हम एक –डेढ़ फुट चौड़ी पगडण्डी पर थे, जो खड़े पहाड़ के साथ–साथ  थी और नीचे नदी बह रही थी I रास्ता कभी–कभी बड़ा डरावना हो जा रहा था I मन को ज्यादा सजग कर के चलना पड़ रहा था I डर था कि, चक्कर आ गए तो ? नीचे नदी का भयानक प्रवाह था I 
 
अब हम एक –डेढ़ फुट चौड़ी पगडण्डी पर थे
  एक जगह आकर नीरज ने मुझे अपनी ट्रेकिंग छड़ी दे दी I मैंने कोई प्रतिकार किये बिना छड़ी ले ली I हमारे बीच कोई मन-मुटाव होता है , वो क्षणिक होता है I छड़ी से सहारा मिल जा रहा था I प्रकाश जी के पास पहले से ही छड़ी थी I
 
दूर पत्थर पर एक आदमी खड़ा है , वही नीरज है
सबके कैमरे बगल में लटके हुए थे I ऑक्सिजन की कमी से साँस में दिक्कत और उलटी जैसा मन हो रहा था I सर दर्द कर रहा था I ऐसी परिस्थिति में ‘फोटोग्राफी’ करने की सूझती ही नहीं है I आखिर इन विपरीत परिस्थितियों में मेरे अन्दर का ‘फोटोग्राफर’ जागा और एक-दो शॉट लिए I कैमरे की बैटरी बचाने और कैमरे को धूल से बचाने का विचार भी मन में सतत चल रहा था I प्रकाश जी का सोलर चार्जर मेरे कैमरे की बैटरी के लिए बेकार था I फिर भी आगे चलते हुए ठीक –ठाक मात्रा में फोटो लिए I
 
हमारा उस दिन का लक्ष्य ‘पुरने’ गाँव था I हम सोच रहे थे की आज शाम तक पुरने पहुँच जायेंगे , लेकिन शाम (7 बजे ) ढलने लगी थी I अब अँधेरा हो चुका था और हम पुरने तो दूर, उससे पहले ‘चा ‘ गाँव तक भी नहीं पहुँच पाए थे I फिर निर्णय हुआ कि आज ‘चा’ में ही रुकेंगे I
 
अँधेरा और सुनसान जनविहीन पहाड़ के कगार पर रास्ता और सैकड़ों फुट नीचे बहती नदी रास्ते की भयानकता को बढा रही थी I नीरज ने मोबाइल को ‘हेड लाईट’ बना लिया था और प्रकाश जी का मोबाइल ‘हैण्ड लाईट’ का काम कर रहा था I  

 प्रकाश जी की गति बेहद धीमी हो चुकी थी I मुझे लगा, ये ट्रेक पूरा नहीं कर पाएंगे I जैसे-तैसे आगे बढ़ते हुए ‘चा’  गाँव की (सौर उर्जा से चलने वाली ) लाइटें दिखाई देने लगी थीI मन में उम्मीद जगी कि ,चलो आज रात का ठिकाना तो मिलेगा I
 
एक मोड पर नीरज गाँव की रात की फोटो ले रहा था I  मैं आगे था और मुझे गाँव में पहुँचने की जल्दी थी I आखिर गाँव में पहुँच कर टीन शेड से ढकी हुई किसी चीज पर हम  (मैं और नीरज ) बैठ गए I  14 अगस्त को पाकिस्तान आजाद हुआ था और 15 अगस्त को भारत , 13 अगस्त को नीरज कहता है कि ,’मैं इंडिपेंडेंट' होना चाहता हूँ I’ मैं बोला , ‘हो जा I

उसके लिए ‘इंडिपेंडेंट' का मतलब था कि, मैं अपनी गति से और मर्जी से मंजिल की ओर बढूँगा और मुझे कोई रोकेगा नहीं I 

 हम लद्दाख (जान्सकर वैली ) के एक ऐसे गाँव में हम रुकने वाले थे जो कि, बहुत रिमोट एरिया में था I यहाँ हम श्रीनगर से तीन दिन के सफर के बाद पहुंचे थे I रात के नौ बजे घर से बाहर निकली एक महिला को हमने पूछा , “रहने खाने के लिए मिल जायेगा क्या ? ´ वो बोली , ‘हो जायेगा I’ 
कितना लोगे ?
वो बोली , ‘पर हेड पांच सौ I
रहने और दो टाइम खाने के पांच सौ , हमने मान लिया I

हमसे बात करके महिला तो पता नहीं कहाँ चली गई; लेकिन एक आदमी नशे की सी हालत में वहीं बैठा हुआ था, वो हमें अपने घर ले गया

'चा' गाँव 
 एक लद्दाखी गाँव और उनके घरों में रुकने का ये जीवन का पहला मौका था I घर में घुसते ही कच्ची शराब की सी गंध आई I घर के  अन्दर वो एक कमरे में ले गया I कमरा ट्रेकर्स के रुकने के हिसाब से ही बनाया हुआ था और उसकी साज-सज्जा भी वैसी ही थी I 'कच्ची छत' को कपड़ा लगा कर सजाया गया था तथा नीचे फर्श बिछा कर सबके आगे छोटी –छोटी सेंटर टेबल लगी हुई थी I चार-पांच गद्दे  और उन पर कम्बल  पड़े हुए थे I मुझे पसीना सूखने के बाद बहुत तेज ठण्ड लगी I मैं एक कम्बल में घुस गया I खाना आया , लेकिन मेरा मन नहीं था, फिर सभी के आग्रह पर थोडा सा खा लिया I

 
 यहीं पर अगले दिन की योजना बनाई गई, जिसमें सामान यहीं छोड़ कर ‘पुखताल गोम्पा’ जाने और फिर वापसी में ‘पुरने’ में रुकने की योजना बनी  I   

सुबह आराम से उठे और नित्य-क्रिया से निवृत हुए , लेकिन पानी बहुत ठंडा होने की वजह से नहाये नहीं I मैंने और प्रकाश जी ने अपना सामान ‘पुरने’ पहुंचाने के लिए घोड़े वाले को तय कर वहीं छोड़ दिया पर नीरज अपने को आगे के ट्रेक के लिए ‘अनुकूलित’ करने के लिए सामान को पीठ पर लाद के चल पड़ा था I
 
पुखताल या फुकताल गोम्पा  ‘चा’ गाँव  से थोडा ऊपर की तरफ चल कर एक सपाट से पहाड़ पर से होते हुए जाना था I  मैं अब वजन से मुक्त था, तो फोटो खीचने का मन भी हो रहा था, हालांकि ‘हाई एलटीट्युड’  के कारण होने वाले लक्षण अभी भी परेशान कर रहे थे I नीरज बैग को लाद कर अपनी गति पकड़ चुका था, पर प्रकाश जी वजन के बिना भी अपनी ‘कल’ वाली गति से ही चल रहे थे I
 
रास्ते में एक लड़का मिला और उसने हमें सैल्यूट-सा किया I ये मुझे अजीब लगा , क्योंकि इधर लोग ‘जुले –जुले’ से अभिवादन करते हैं और मैं अन्दर से झुंझलाकर भी उसका जवाब देता था I उस लड़के को हम ‘लोकल’ समझ रहे थे , लेकिन वो भी एक ट्रेकर था और बंगाल से आया था I उसने बताया कि आगे रास्ता बहुत ही खतरनाक है I डेढ़ से दो  फीट चौड़ी पगडण्डी पर पत्थर सरककर आ गए थे और उसके  नीचे दो सौ मीटर की गहराई में नदी अपने पूरे प्रवाह से बह रही थी I

‘होगा जो देखा जायेगा’ की तर्ज पर हम आगे बढ़ लिए I धीरे-धीरे मैं गति पकड़ चुका था, प्रकाश जी अपनी गति से चले आ रहे थे और वो बेमन से पुखताल जा रहे थे I नीरज फोटोग्राफी करता हुआ चल रहा थाI प्रकृति के रंग पल–पल बदल रहे थे, पर शरीर साथ न दे तो प्रकृति के रंग भी बेरंग लगते हैं I प्रकाश जी के साथ यही हो रहा था और थोडा बहुत मेरे साथ भी I  

प्रकृति के रंग पल–पल बदल रहे थे
 कहीं हिमाच्छादित पर्वत तो कहीं एकदम सपाट पहाड़ जैसे भावना विहीन कोई व्यक्ति सदियों से खड़ा रहने के लिए अभिशप्त हो प्रकाश जी और प्रकाश जी को साथ लेकर चलने में नीरज पीछे छूट गए थे और प्रकाश जी के साथ नीरज के होने की वजह से मैं प्रकाश जी की तरफ से निश्चिन्त हो आगे बढा जा रहा था I पर मन में एक ख्याल ये भी आता था कि नीरज ने तो कल ही ‘इंडिपेंडेन्ट’ होने की घोषणा की थी फिर मन को समझाया कि प्रकाश जी भी कोई बेवक़ूफ़ नहीं है , आखिर एक बड़ी कंपनी के आईटी हैड हैं I
 
मैं अब अकेला चला जा रहा था रास्ते में एक जगह कुछ फूलों पर तितलियाँ उड़ती दिखाई दी, तो मैंने फोटो के उद्देश्य से कैमरा निकाल लिया, तभी मुझे पीछे किसी के होने का अहसास हुआ
 
बड़ा मुश्किल था फोटो खींचना और उड़ती हुई तितली .... और भी मुश्किल ।  
 मैंने गर्दन घुमा कर देखा तो एक सात-आठ साल का लद्दाखी बच्चा था I उसने मुझे ‘जुले-जुले’ से अभिवादन किया और मैंने ‘जुले –जुले’ से ही जवाब दे दिया मैंने बातचीत को आगे बढ़ने की गरज से पूछा की ‘पुखताल’ कितनी दूर है, तो उसने बताया अभी एक घंटा और लगेगा मैं समझ गया की ये उसकी गति बता रहा है, मेरे लिए वो दो घंटे से भी ज्यादा का सफर था यहाँ एक बात ध्यातव्य है , वो ये कि पहाड़ों में किलोमीटर से नहीं; समय से दूरी नापी जाती है

वो लड़का धीरे–धीरे मुझसे बहुत आगे निकल गया और फिर एक मोड पर मैंने गौर किया कि, वो रुक कर मुझे देख रहा है I मैं समझ गया कि , ये वो ही खतरनाक जगह है, जहाँ छोटा लैंड स्लाइड हुआ है और पत्थर रास्ते पर आकर रास्ते को कठिन बना चुके हैं उस लडके और मेरे बीच की दूरी लगभग एक किलोमीटर होगी मैंने पीछे मुड कर देखा तो तीन औरतें और आ रही थी और वो लड़का उन्ही के साथ का था प्रकाश जी और नीरज दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रहे थे I मैंने सोचा थोडा रुक लूं लगभग आधे घंटे के इंतजार के बाद भी दोनों में से कोई नहीं दिखाई दिया तो, मैं फिर चल पड़ा चलते –चलते वो जगह भी आ ही गई , जो खतरनाक थी
 
मैंने नजदीक जा कर देखा, तो लगा कि पार किया जा सकता है और जैसे ही उन पत्थरों पर कदम रखा, वो नीचे सरकने लगे I मेरी टांगो में कम्पन होने लगा और नीचे का नजारा जैसे ही देखा, वो होश उड़ाने के लिए काफी था नीचे वास्तव में दो सौ मीटर की सीधी गहराई में नदी अपने उफान पर थी I वहां से सरकने का मतलब सीधे नीचे नदी में   फिर मन में ये विचार आया कि ,’अगर मैं यहाँ से सीधा नदी में गिरता हूँ तो किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कहाँ गया?’ फिर मन को समझाया, ‘नीचे मत देख I‘ और सरकते पत्थरों पर जल्दी –जल्दी पैर रख कर पार का गया  

दाईं तरफ मेरा जूता दिखाई दे रहा है और  लगभग दो सौ मीटर नीचे नदी
 अभी मैं  इस डर से खुद को संयत कर पाता इतने में ‘हैलिकोप्टर’ की सी आवाज मेरे पीछे से आई और जैसे ही मैंने पीछे मुड कर देखा मैं सन्न रह गया जहाँ से अभी मैं गुजरा था, ठीक वहीं एक बड़ा सा पत्थर ऊपर से लुढ़कते हुए नीचे आ रहा था और अपने साथी पत्थरों को भी ‘हमराह’ बनाता जा रहा था मन में फिर सोचा , ‘हे भगवान कहाँ फंस गया ?’                 
प्रकाश जी और नीरज को भूल मैंने अपने कदम और तेज बढ़ाने शुरू कर दिए और तभी एक और पिछले वाले से मुश्किल लैंड स्लाइड वाला रास्ता आ गया I मैंने बेबसी में पीछे मुड कर देखा, तो दूर वो औरतें आती दिखाई दी I उनके साथ वाला बच्चा आगे जा कर गायब हो गया

  ये उनके लिए रोजमर्रा की बात होगी; पर मेरे लिए बेहद डरावना-सा अनुभव था I पीछे वापस जाने का मतलब वो खतरनाक रास्ता फिर पार करना पड़ता काफी देर तक असमंजस की स्थिति में वहीं खड़ा रहा लद्दाखी औरतें नजदीक आती जा रही थीं मैंने सोचा, ये भी तो रास्ता पार करेंगी और मैंने कांपते क़दमों से उन सरकते ढीले पत्थरों पर पैर रख ही दिए I मैंने अपना पूरा वजन पहाड़ की तरफ रखा हुआ था, न कि खाई की तरफ I हाथ की स्टिक को भी आगे मजबूती से गाड़-गाड़ कर कदम बढा  ही रहा था कि, पत्थरों ने सरकना शुरू कर दिया और मैं डर के मारे बैठ गया थोड़े से पत्थर सरकना बंद हुए और मैं उठ कर तेज कदमों से छलांग लगा कर पार हो गया I
 
रास्ता पार करने के बाद दिल और दिमाग धीरे- धीरे संयत होने लगे तो नीरज और प्रकाश जी का ख्याल आया नीरज की मुझे चिंता नहीं थी , पर प्रकाश जी के लिए तो मैं यही दुआ कर रहा था कि, वो लौट जाएँ   
पीछे दूर कहीं कई लोगों का ग्रुप आ रहा था I मैंने अपने को आश्वस्त किया कि, कोई बात नहीं उन लोगों के साथ प्रकाश जी और नीरज आ जायेंगे I अब मुझे प्यास महसूस होने लगी थी I पानी का कोई स्रोत दूर–दूर तक नहीं दिखाई दे रहा था I बोतल प्रकाश जी और नीरज के पास तो थी, पर मैं बेवकूफी कर गया मेरे पास ग्लूकोज का डब्बा था उसको चाटने या खाने से तो और प्यास बढती सोचा, ‘चलता रह एक-डेढ़ घंटे की प्यास से कोई मरता नहीं है Iमैं चलता रहा और दूर एक पाइप लाइन जाती दिखाई दी

दिमाग में ये ही ख्याल आया कि ; ये पुखताल गोम्पा के लिए पानी की सप्लाई लाइन है , जो किसी झरने से जोड़ी गई है उम्मीद और सूखे कंठ के साथ मैं आगे बढ़ता गया I अब रास्ता धीरे–धीरे नीचे की तरफ उतरने लगा था और दूर उतरकर एकदम नदी के साथ हो लिया I पानी पीने की उम्मीद तो जगी, लेकिन नदी का पानी बहुत मटमैला था I वो पानी नहीं पीया जा सकता था    

मैंने सोचा नदी के पास किसी खड्डे में कहीं साफ़ पानी मिल जायेगा और मैंने अनवरत चलना जारी रखा I अब मैं ऊंचाई से उतरकर नदी के साथ–साथ चल रहा था I पानी के लिए कोई गढ्ढा देख ही रहा था कि, मैंने देखा सडक दुबारा ऊपर की ओर जा रही है I मेरा दिमाग सुन्न सा होने लगा  

एक तो इतना नीचे उतरकर आया और वापस उसी ऊंचाई पर चढ़ना पड़ेगा!  तभी मेरी नजर जहाँ से सडक ऊपर चढ़ रही थी , वहां बहते एक झरने पर पड़ी  


तभी मेरी नजर जहाँ से सडक ऊपर चढ़ रही थी , वहां बहते एक झरने पर पड़ी

मैं झरने को देख कर लगभग भागते हुए कदमों से उसके पास पहुंचा I ऊपर झरने की तरफ देखा तो मेंरा अनुमान सही था वो पानी की सप्लाई 'लाइन' वहीं से जुडी हुई थी झरने के बहते पानी को पार करने के लिए एक छोटा-सा पुल बना हुआ था मैंने ग्लूकोज का डब्बा निकाल कर ढेर सारा ग्लूकोज फांक लिया और जी भर कर पानी पी लिया अब वापस चढना था और मैं बुझे क़दमों से ऊपर की ओर चढने लगा  

ऊपर चढने के बाद मुझे दूर मन्त्र लिखी पताकाएं हवा में लहराती दिखाई दीं वो ‘पुखताल गोम्पा’ की सीमा थी मेर क़दमों में तेजी आ रही थी I मन्त्र लिखी पताकाएं जैसे-जैसे नजदीक आ रही थी; मैं उतने ही जोश से आगे बढ़ने लग गया I पीछे देखा तो विदेशी तो आते दिखाई दिए, पर प्रकाश जी और नीरज का कहीं पता नहीं मैंने सोचा , अब इकट्ठे ही ‘पुखताल’ पर ही इंतजार करूंगा
 
हरे रंग के बोर्ड पर ‘PHUKTAL’ लिखा दिखा, वहीं नजदीक ही मन्त्र लिखी पताकाएं हवा में फडफड़ा रही थीं मैं जैसे ही पुखताल गोम्पा के ‘गेस्ट हाउस ‘ के पास पहुंचा और मेरी नजर गोम्पा की तरफ गई , तो मैं मंत्रमुग्ध सा रह गया I इस वीराने में एक शहर-सा बसा हुआ था अमरनाथ की गुफा जैसी गुफा और उसमें बौद्ध भिक्षुओं के रहने के निवास ऐसे लग रहे थे; जैसे पूरा शहर हो उसी में बौध्द मंदिर भी था I अद्भुत था वो दृश्य !!  मेरे जीवन में ऐसा मैंने कभी नहीं देखा I गेस्ट हॉउस से गोम्पा की दूरी लगभग एक किलोमीटर और थी

गेस्ट हॉउस से गोम्पा की दूरी लगभग एक किलोमीटर और थी

मैंने अब प्रकाश जी और नीरज का इंतजार करने का फैसला किया और चमकती तेज धूप में मुंह पर कपड़ा डाल के गेस्ट हाउस के बिना घास वाले लॉन में पसर गया I थक कर चूर था , पर मन में गोम्पा तक पहुँचने का सुकून भी ............. 
  
मित्रों यहाँ मैं क्षमा चाहूंगा । लेख ज्यादा लम्बा हो जायेगा । 'पुखताल गोम्पा' और इसके रहस्य तथा और फोटो के लिए एक भाग और जारी रहेगा ................... 

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