“मैंने अब प्रकाश जी और नीरज का
इंतजार करने का फैसला किया और चमकती तेज धूप में मुंह पर कपड़ा डाल के गेस्ट हाउस
के बिना घास वाले लॉन में पसर गया I
थक कर चूर था, पर मन में गोम्पा तक पहुँचने का सुकून भी ............. “
अब आगे:-
मैं ‘गेस्ट हाउस’ के लॉन में पड़ा
हुआ था और मेरा मन अतीत की ओर जा रहा था । मैं सोच रहा था कि, ‘कहाँ से कहाँ आ
गया मैं ?’
कैसा है ये जीवन ? जो चीज किसी खास
वक्त में बहुत महत्वपूर्ण होती है, वो एक समय बाद बेमानी-सी हो जाती हैं ।
जीवन में अतीत के पन्नो को पलटते
हैं तो, किसी पन्ने के बीच रखे फूल की
खुशबू-सी आती है। उस वक्त के सुख हो या दुःख; बस अच्छे लगते हैं ।
कुछ अच्छी यादों को मन बार–बार याद
करना चाहता है और ऐसा लगता है, अभी कल की ही तो बात है ।
.......और मेरी ये यात्रा ऐसी ही
यादों की ‘जंजीर’ में एक और कड़ी है । ऐसी जगह कोई ‘पर्यटक’ नहीं जाता है। मैं भाई
नीरज का शुक्रगुजार हूँ ।
पुखताल या फुगताल गोम्पा की जीपीएस
से ऊंचाई तो नीरज ने नापी और नोट की थी, फिर भी लगभग 14000 हजार फीट की ऊंचाई पर
स्थित ये गोम्पा ‘जांसकर वैली’ का प्रमुख
आकर्षण है । श्रीनगर से दो दिन कार से और दो दिन पैदल चलने के बाद हम यहाँ पहुंचे
थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी और ग्रह पर आ गए हैं ।
विदेशी पर्यटक खिंचे चले आते हैं
यहाँ । मुझे लेटे हुए 15-20 मिनट से ज्यादा हो चुके थे। मैंने उठ कर मुंह हाथ धोये
और ‘गेस्ट हाउस’ के उस ओर चला गया जहाँ छाया थी । थोड़ी देर में विदेशी ‘ट्रेकर्स ‘
का एक ग्रुप आ गया । नीरज और प्रकाश जी अभी भी नहीं आये थे। विदेशियों के साथ आये
‘स्थानीय गाइड’ से पता चला कि, सारे ट्रेकर्स फ़्रांस के थे। उन विदेशियों ने अपना
नाश्ता किया और ‘गोम्पा’ की ओर चल पड़े थे और मैं सोच रहा था की नीरज और प्रकाश जी
के साथ ही चलेंगे । मैंने वहाँ से गोम्पा की अलग-अलग ‘एंगल’ से फोटो लिए। काफी देर
के बाद नीरज आया और उसके थोड़ी देर बाद प्रकाश जी । प्रकाश जी को आया देख मेरे मन
में सुकून आया । नीरज तो घुमक्कड़ है और वो मैनेज कर लेता है , तो मुझे उसकी चिंता
नहीं थी।
नीरज के आने से कुछ देर पहले ही
गेस्ट हाउस, जो अब तक बंद था, खुल गया और उसमें खाने से लेकर चाय नाश्ते की
व्यवस्था थी । सबने अपने–अपने मनपसंद ड्रिंक्स और बिस्कुट लिए ।
एक फ्रांसीसी अपनी बीवी और बेटी के
साथ आया और वो भी हमारे साथ चाय-नाश्ता करने लग गए। जब हम गोम्पा की ओर जाने लगे
तो
प्रकाश जी बोले,”मैं गोम्पा नहीं जाऊँगा ।“
मैंने पूछा, ‘क्यों ?’
वो बोले, ‘बहुत देखे हैं ऐसे गोम्पा
।‘
हम उन्हें छोड़ के बाहर निकलने वाले
ही थे कि, मैंने महसूस किया वो फ्रांसीसी लड़की भी नहीं जा रही है गोम्पा, जबकि
उसके माता-पिता जा चुके थे। मैंने आखिर उससे पूछ ही लिया । तो उसने अंग्रेजी में
जवाब दिया, उसका मतलब ये ही था कि, वो यहाँ पहले भी आ चुकी है।
मैं और नीरज प्रकाश जी और उस
फ्रांसीसी लड़की को छोड़ के ‘गोम्पा’ की ओर चल दिए । अब हम दबा के फोटो खींच रहे थे । हर दस-बीस कदम
के बाद नजदीक आते गोम्पा की फोटो खींची जा रही थी ।
नजदीक आते गोम्पा की फोटो खींची जा रही थी |
तभी रास्ते में एक विदेशी को मैंने
कचरा उठाते देखा और मेरा कैमरा उसके फोटो लेने लगा । वो जब नजदीक आया तो उसने अपना
चेहरा ढकने की कोशिश की , तब तक तो मैंने अपने काम लायक फोटो ले लिए थे। नीरज मुझ से पीछे चल रहा था। विदेशी से
मैंने उसका नाम और देश के बारे में पूछा । उसने नाम बताया, वो तो मुझे याद नहीं रहा,
लेकिन उसका देश जर्मनी था। मैंने उसकी प्रसंशा की और धन्यवाद दिया।
लेकिन मैं यहाँ
सोचने पर मजबूर हो गया , की जिस विदेशी का इस देश से कोई लेना देना नहीं है , वो
यहाँ कचरा उठा रहे है और अपने देश वाले
??? उठा नहीं सकते तो कम से कम फैलाओ तो नहीं । शर्मिंदगी का अहसास गहरा होता जा
रहा था और मन बोझिल ।
अब नीरज भी मेरे नजदीक आता जा रहा
था । और हम गोम्पा के बहुत नजदीक आ गए थे । बौद्ध भिक्षु दिखाई देने लगे थे ।
जैसे
ही गोम्पा के मधुमक्खी के छत्तेनुमा घरों की सीमा में हमने प्रवेश किया, बड़ा
विचित्र सा अनुभव था वो। सीढियां चढते हुए ऊपर ‘गुफा’ के फोटो लेते हुए हम ऊपर की
तरफ बढ़ने लगे । पत्थरों पर लकड़ियाँ और लट्ठे रख कर बौद्धों के रहने के घर बनाये गए
थे।
पुखताल या फुगताल गोम्पा Gangsem Sherap Sampo ने
बारहवीं सदी में स्थापित किया था और अभी लगभग सत्तर से सौ बौद्ध भिक्षु यहाँ रहते
हैं। Lungnak (Lingti-Tsarap) नदी के किनारे बसा हुआ है। ( ये जानकारी विकिपीडिया से ली
गई है )
एक
छोटा-मोटा शहर-सा है ये। यहाँ एक बड़ी अच्छी बात है कि आप किधर भी जाकर
फोटो ले सकते हैं , सिवाय मुख्य मंदिर के।
अँधेरी और रहस्यमयी सीढ़ियों से होते
हुए हम (मैं और नीरज ) ऊपर बढे जा रहे थे। हमारी उत्सुकता बढती जा रही थी ।
अँधेरी और रहस्यमयी सीढ़ियों से होते हुए |
सीढियां चढ़ कर मैं तेजी से गुफा के
लगभग अन्दर आ गया । एक बौद्ध भिक्षु ‘माने’ के चारो तरफ परिक्रमा कर रहा थे ।
फ्रांसीसी ट्रेकर्स का ग्रुप उनके गाइड सहित मौजूद था । बौद्ध ‘माने’ के अलावा गुफा में अन्दर छोटे-छोटे कमरे बने
हुए थे, जो कि बंद थे।
मैंने फ्रांसीसी ट्रेकर्स के गाइड को कहते सुना था कि, 'यहाँ गुप्त योग
क्रियाएं होती हैं', तो मेरे कान खड़े हो गए । मुझे एक (शायद डिस्कवरी या ट्रेवलर्स)
चैनल पर दिखाए गए बौद्ध भिक्षु की वो योग क्रिया याद आ गई , जिसमें वो अपने चारों
तरफ जलते दीपकों के बीच जाते हैं और ध्यान मुद्रा में हवा में उठ जाते हैं।
मैंने ऊपर जाकर देखने की कोशिश की, लेकिन वो कमरे बंद थे। कमरे, जो गुफा में ऊपर की तरफ थे, उनके बंद दरवाजे उनकी रहस्यात्मकता को और बढा रहे थे।
अब हमने ‘माने’ की परिक्रमा करते हुए उस बौद्ध भिक्षु से नीचे के कमरों के बारे
में पूछा, तो उन्होंने बताया कि, ‘इसमें प्राचीन ‘जल’ है ।‘
हमने पुछा , ‘ हम देख सकते हैं ?’
भिक्षु बोले , ‘विदेशी महिलाओं के
जाने के बाद ।‘
दरअसल उसमें महिलाओं का प्रवेश
वर्जित था ।
वो विदेशी जल्दी से जा नहीं रहे थे
और हमारी उत्सुकता चरम पर थी ।
आखिर विदेशी महिलाएं चली गई तो,
हमें जाने की अनुमति मिल गई ।
एक पुराने से दरवाजे को धकेल कर मैं और नीरज उस गुफा के
अन्दर बने जीर्ण से कमरे में पहुंचे। वहां एक पानी का स्रोत था । जाहिर है कि,वो
बहुत पुराना होगा। वहीं एक चांदी की चम्मच और एक चांदी का पात्र रखे हुए थे। उस
पात्र में पवित्र जल भरा हुआ था। नीरज बड़ी गहनता
से छानबीन कर रहा था और मैं फोटो ले रहा था।
जैसे ही हमने जल को लेना चाहा, वो बौद्ध भिक्षु अन्दर आ गए। हमने उनसे जल माँगा तो उन्होंने एक प्लास्टिक के कैन
में भरे जल में से थोडा-थोडा हमें दिया और हमने उसका आचमन कर लिया। एक संतोष-सा
हुआ कि, पता नहीं ये ‘जलधार’ यहाँ कितने वर्षों से बह रही होगी, उसका आचमन तो
किया ।
हम वहां से निकल के बाहर आ गए । मैं
इधर –उधर की फोटो ले ही रहा था कि नीरज मुझे बुलाने आ गया । बोला, उधर चल । और हम
उनके मुख्य मंदिर में, जो अभी खोला ही गया था, प्रवेश कर गए । उसमें एक बच्चे
जैसे बौद्ध भिक्षु ने फोटो खींचने के लिए मना कर दिया ।
उस मुख्य मंदिर में ‘दलाई
लामा जी’ की बड़ी सी फोटो लगी हुई थी । दीवारों पर प्राचीन बौद्ध चित्र थे, जो
दुर्लभ थे। ‘दलाई लामा जी’ की फोटो के सामने दो पंक्तियों में आसन बिछे थे, जो
कि बौद्ध भिक्षुओं के पूजा-पाठ के लिए थे ।
बौद्ध मंदिर और गोम्पाओं के अन्दर
बड़ी विचित्र सी अनुभूति होती है । लगता है , जैसे किसी और दुनिया में आ गए । मैं
दूसरे कमरों में भी घूमने लग गया । कहीं
कोई बौद्ध भिक्षु माला फेर रहे थे , तो कहीं कोई चुपचाप बैठा था ।
विदेशी बड़े उत्साहित होकर भिक्षुओं
के साथ फोटो खिंचवा रहे थे । हम भी जी भर के गोम्पा को देख लेना चाहते थे ।
धीरे-धीरे
हमने वापसी शुरू कर दी । फोटो लेते हुए ही वापसी भी हो रही थी ।
14 अगस्त का दिन था वो। मुझे वहां से लगभग एक किलोमीटर नीचे बौद्ध स्कूल
की छत पर एक पत्थरों की आकृति सी दिखाई दी । मैंने उसको गौर से देखा तो, वो भारत का नक्शा
था। मैं स्तब्ध था। कितनी मेहनत से देश
के इस दूर-दराज इलाके में जो कि, देश से लगभग कटा हुआ और छुपा हुआ है, वहां
स्वतंत्रता दिवस मनाने की इतनी तैयारी की जा रही थी !!
धीरे-धीरे
हम वापस ‘गेस्ट हाउस’ पहुँच गए, वहां प्रकाश जी उंघते से मिले । थोडा बहुत और
खा-पीकर हम ‘पुरने’ की ओर वापसी के लिए चल दिए । आज रात हमें पुरने रुकना था ।
पुरने के लिए पुल पार कर दूसरी तरफ के रास्ते से
जाना था ।
मन में एक राहत थी कि, अब उस ‘खतरनाक वाले रास्ते’ से नहीं जाना था ।
अब
हमारी आगे की योजना थी कि, पुरने से सुबह ‘दारचा ट्रेक’ की शुरुआत की जायेगी और
मुझे इस ट्रेक का मुख्य आकर्षण ‘शिंगो-ला’ पास लग रहा था । प्रकाश जी अनुमान लगा रहे
थे कि, मुझे हर हालत में 20 अगस्त को दिल्ली पहुंचना है ।
दिल्ली से उनकी फ्लाईट रायपुर (छत्तीसगढ़) के लिए
थी । लगभग 95 किलोमीटर का ट्रेक चार दिन में पूरा करना था , जो कि 15 किलो के बैग
के साथ नामुमकिन लग रहा था ।
प्रकाश जी
बोले, ‘अगर मेरी फ्लाईट छूट गई, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।‘
मैंने पूछा,
‘अगर अपना सामान घोड़े (खच्चर) पर लाद दें
तो चल सकते हैं?’
वो फिर भी
थोड़े अनिश्चय की स्थिति में थे ।
'पुरने' की सीमा में प्रवेश करते ही 'याक' के दर्शन हुए |
शाम को हम
जब ‘पुरने’ पहुंचे तो ‘वही’ खच्चर वाला मिल गया ।
अब ‘चा’
में जो खच्चर वाला तय किया, उसको कैंसिल करना पड़ा । जैसे ही ‘चा’ वाला खच्चर
कैंसिल हुआ; पहले वाले ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया । अब जिस खच्चर के वो छः
सौ माँगा रहा था, उसके पंद्रह सौ मांगने लगा था । उससे जम के बहस हुई । अब हमें लग गया कि, हमारी आगे की यात्रा ‘खटाई’
में है । क्योंकि मैं (सर्वाइकल की बीमारी के कारण ) और प्रकाश जी बिना खच्चर के
आगे नहीं जा सकते थे ।
अब मैं और
प्रकाश जी ‘दारचा’ ट्रेक कैंसिल करने वाले थे और ‘नीरज’ ये ट्रेक पूरा करना चाहता
था । हमने नीरज को अपना निर्णय बता दिया , कि हम सुबह पदुम के लिए वापसी करेंगे । नीरज ने भी सहमति दे दी ।
हमने एक
खाली जगह में विदेशियों के टेंट के पास ही अपने टेंट लगा लिए।
खाना खाने ‘तेनजिंग’
नाम के लडके के घर जाना था । रात को तेनजिंग के घर पहुंचे तो, वही फ्रांसीसी (जो
गेस्ट हाउस में मिला था) अपनी पत्नी और बेटी के साथ वहां बैठा मिला। वो हमें
देखा कर बड़ा खुश हुए । मैंने उनकी एक फोटो ली और उन्होंने हमारी भी ।
हमने भी ‘मोमोज’
आर्डर कर दिए थे । मेरा मन खाना या कुछ भी खाने का नहीं था । उन फ़्रांससियों ने हमें अपने मोमोज खाने के लिए
दिए , मैंने बेमन से एक दो लिए । काफी देर
तक बातचीत होती रही और आगे की योजना बनती रही। हमें तब पता चला कि , फ्रांसीसी की
लड़की आर्किटेक्चर थी और ‘पदुम’ में किसी NGO के लिए काम कर रही थी ।
अब हमारा
प्लान पदुम से कारगिल होते हुए लेह और मनाली का था । मन कर रहा था कि , कब यहाँ से
निकलें । नीरज अपने तय कार्यक्रम के साथ आगे (दारचा) के लिए प्रस्थान करने की
तैयारी कर रहा था ।
मैं और
प्रकाश जी एक टेंट में और नीरज अपने टेंट में सो गए । सुबह आराम से उठे और नित्य
क्रिया से निवृत हुए । नहाना यहाँ भी नहीं
हो पाया । नाश्ता ‘तेनजिंग’ की दुकान पर किया
और नीरज ‘दारचा’ की ओर तथा मैं और प्रकाश जी वापस पदुम के लिए चल दिए ...........!
सीढ़ियां चढ़ते हुए |
नीरज जाट |
एक फल ऐसा भी , जिसके आँखे हैं |
लाल निशान 'फ़्रांसिसी' को जाते हुए बता रहा है |
वो सामने पगडण्डी दिखाई दे रही है, वही रास्ता है |
संगम |
इसमें देखें एक आदमी जाता हुआ दिखाई दे रहा है, वही प्रकाश जी हैं ! |
हमारा जीवन भी रेत पर लिखे नाम की तरह है , कोई लहर आई और हमारा वजूद ख़त्म |
ऊपर जो पगडण्डी दिख रही है , उसी पर जाना है |
एक मोड़ पर |
पहला और दूसरा भाग यहाँ क्लिक करके भी पढ़ सकते हैं :-
पुखताल गोम्पा : एक छुपी हुई , रहस्यात्मक दुनिया (भाग –एक) Phukhtal Gompa