Sunday, April 22, 2012

उत्तराखंड की ओर- भाग दो

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हरिद्वार में ऋषिकेश के लिए 'उत्तराखंड  परिवहन' की  बस पकड़ ली, बस में चढते ही कंडक्टर नीरज से बोला," जब चलना ही था, तो उतरे क्यों थे ?" नीरज मेरी तरफ इशारा कर के बोला, "इस आफत को लेने उतरा था "

बस खाली सी ही थी।  हम आराम से बैठ गए ....'ऋषिकेश' नाम दिमाग में बार-बार टकरा रहा था, ऋषि +केश = ऋषि के बाल ।  मतलब क्या ऋषि के बाल? कोई तारतम्य नहीं बैठ रहा था।

हरिद्वार से निकलते ही हमें उत्तराखंड का विकास (विनाश) दिखाई दिया  सड़कें तो चौड़ी हो रही थी, लेकिन उसके लिए हजारों पेड़ों की बलि दी जा रहा थी मन खिन्न हो गया।

मैं घर से नक्शा -वक्शा तो देख कर चला नहीं था, हरिद्वार के बाद नीरज के भरोसे और उसी के हिसाब से चलना था। ऋषिकेश में उतरने के बाद 'फैंटा' पीया गया और फिर वहां से देवप्रयाग ।

देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा मिलती है, ये बात मुझे नीरज से ही पता चली साफ़ पानी देखकर मेरे 'मुंह में पानी' आ जाता है और मैंने बस में ही घोषणा कर दी की, मैं तो नहाऊंगा!!! 

देवप्रयाग में परांठे उदरस्थ करने के बाद संगम के लिए चल दिए भागीरथी का जल निर्मल, स्वच्छ और नीला दिखाई दे रहा था, वहीँ अलकनंदा का जल मिटटी युक्त था   
   मन्दाकिनी पर बने इस पुल को पार करके देव प्रयाग संगम पर गए थे
पानी का प्रवाह मेरी उम्मीद से ज्यादा होने के कारण कूद- कूद के नहाने के विचार को त्यागना पड़ा   वहीँ बैठे एक बुजुर्ग 'पंडित' ने प्लास्टिक का मग मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा ,"इससे नहा लो"   
 (यहाँ एक और बुजुर्ग "पंडित" ने मेरे हाथ में जल और दूब देने की कोशिश की और मैंने जरूरत से ज्यादा सख्ती से मना कर दिया। हालाँकि उनके मन्तव्य को समझ कर चलते वक्त मैं दोनों बुजुर्ग "पंडितों" को पांच-पांच  रुपये दे कर आया। हम धर्म करने नहीं, घूमने गए थे। (मुझे पेड़-पौधे,पर्वत, नदियाँ, झरने और प्रकृति के नानारूपों में ही ईश्वर के दर्शन होते हैं )

गंगाजी का जल जैसे ही शरीर से स्पर्शित हुआ, मन आनंद से सरोबार हो उठा, उस विचित्र आनंद को महसूस करने के लिए आपके मन के द्वार खुले हुए होने चाहिए (किसी भी पूर्वाग्रह से ग्रसित हुए बिना,बच्चे का सा मन )  एक नई दुनिया में प्रविष्ट होने के एहसास से सरोबार था मैं!!!!     
    वो नीचे संगम पर स्नान किया गया
                                                        
आनंद और नए एहसास को संजोये देवप्रयाग से रूद्रप्रयाग के लिए एक जीप में बैठ गए 

पर्वतों की ऊंचाई और अलकनंदा की गहराई बढ़ने के साथ ही मेरे मन में किंचित भय और विस्मय साथ-साथ आने लगे थे। मन में अख़बार और टीवी की बुरी खबरें जो देखी, सुनी और पढ़ी थीं, वो आंदोलित होने लगी थीं। 

उस डर को और गहराई से महसूस करने के लिए मैं खिड़की के पास बैठ गया था तीव्र मोड़ों और अच्छी व ख़राब सड़कों को पार करते हुए हम जीप से रुद्रप्रयाग की तरफ बढ़ रहे थे  अँधेरा घिरने के बाद श्रीनगर पार किया और रुद्रप्रयाग पहुँच गए  वहां उतरने पर बिजली गुल होने की वजह से अँधेरा छाया हुआ था   एक-दो लोग पास आकर बोले, ''होटल चाहिए?" हम लोग दूसरा  होटल देखने के विचार से आगे बढ़ गए आगे अँधेरा होने की वजह से होटल के लिए पूछने वाले उन्ही लोगों को बुला कर होटल दिखाने के लिए कहा  

छोटी टोर्च के उजाले में गन्दी और गीली सी सीढियाँ उतार कर वो शख्स हमें सड़क के स्तर से एक मंजिल नीचे ले गया, ये एक लॉज था  कमरा दिखाने के बाद बोला, "तीन सौ रुपये
हमने कहा, "ज्यादा है"
वो बोला,"टीवी भी है"            
हमने कहा,"बेकार है, लाईट नहीं आ रही है"    
अंत में वो दो सौ रुपये पे मान गया। 
खाना खाने के बाद सोने को हुए तो पलंग के नीचे 'कुछ' बजा, पलंग के  नीचे झांककर देखा तो पलंग के दो पायों की जगह पीपों पर टिका हुआ था और वो करवट लेते हुए बजते थे । 
         ये ही वो पलंग हैं, जिनके नीचे पीपे लगे थे
                                              
अगली सुबह .....अगले भाग में । 
क्रमशः .....

Saturday, April 14, 2012

उत्तराखंड की ओर- भाग एक

गूगल (google) पर नक़्शे देखते हुए मेरा मन फिर घूमने के लिए मचलने लगा था, ऐसा लग रहा था 'प्रकृति माँ' मुझे बाहें फैला कर पुकार रही हो की, आजा बेटा!! और मैं दौड़ कर उसकी गोद में दुबक  जाना चाहता था, उसके साथ खेलना चाहता था, रोमांचित और हर्षित होना चाहता था…. भाई नीरज के साथ उत्तराखंड जाने का जैसे ही कार्यक्रम बनाया , मेरी पत्नी और बेटी मुझे अहसास दिलाने लग गये थे, कि आप  एक जिम्मेदार पिता भी हो I 

जहाँ मैं 'प्रकृति का बेटा' बन कर घर से निकलना चाहता था, वहीं एक पिता के रूप में बेटी के शब्द "पापा मत जाओ" मेरे कदम घर से निकालने को रोक रहे थे I बड़े असमंजस कि स्थिति थी वो I  खैर .......


दो अप्रैल को बस से हरिद्वार के लिए चल दिया I  बस के दिल्ली पहुँचने पर नीरज से हरिद्वार में ही मिलने की बात तय हो गई थी I

इससे पहले भाई संदीप जाट से मोटर साईकिल से नेपाल जाने का कार्यक्रम तय करने की कोशिश की, लेकिन व्यक्तिगत कारणों से वो नहीं जा  पाए ....खैर नेपाल बाद में सही I

हरिद्वार ऋषिकुल चौराहे पर उतरते ही नीरज को फोन लगाया, तो वो बोला कि, "ऋषिकुल चौराहे पर आ जाओ और एक किलो केले खरीद लेना, मैं बीस मिनट में आता हूँ"I चारों तरफ नजर दौड़ाई तो एक ठेले पर हरे केले दिखाई दिए I मैंने सोचा, उसे आ ही जाने दो तभी खरीदूंगा और वहीं थडी (चाय की दुकान) पर चाय वाले से एक चाय बनाने के लिए  कह दिया I चाय कांच के गिलास में फुल भर के थी और हमें राजस्थानी 'कट' पीने की आदत है I चाय हलक में जाते ही दिमाग ख़राब हो गया न अदरक, न लोंग..... चाय फेंकने का मन  करते हुए भी पांच रुपये का मोह उसे पीने पर मजबूर कर रहा था I

इधर नीरज के दिए हुए बीस मिनट आधे घंटे से भी ऊपर हो गए I सोचा क्यों न
'फ्रेश' (दीर्घ शंका) हो लिया जाये ('फ्रेश' शब्द 'दीर्घ शंका' के लिए प्रयोग करने पर नीरज को आपत्ति है) I

बोतल
ले कर एक नहर के किनारे झाड़ियों में सरक लिए और (जैसा मैं पूर्व अनुमान किये बैठा था)  नीरज का नाम मेरे मोबाईल की स्क्रीन पर चमकने लगा………..जल्दी से निवृत हो  कर बात की और उसे वहीं (नहर के किनारे ) आने की बात कह कर फोन  काट दिया I

अपने पेटेंट अंदाज में कानों में खूँटी (इअर फोन) ठोंके नीरज महाशय सड़क पर दिखाई दिए और बोले, चल आज रूद्रप्रयाग तक पहुंचना है और ऋषिकेश वाली बस में चढ़ लिए I
गंगा मैया की मूर्ति
                                 
क्रमशः ....... 

 

उत्तराखंड की ओर- भाग दो                                                                                                                                       

उत्तराखंड की ओर- भाग तीन                                                                                                                                                      

उत्तराखंड की ओर- भाग चार